ढिंग टांग : जीव माझा..!

vidyalaya
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नको झाले जीणे। हरी तुझ्याविणे।
सदोदित भिणे। नशिबी आले।।

संतमहात्म्यांनी। दाविली प्रचीती।
नाही भयभीती। देवापास।।

निर्भय जगा रे। नीडर वागा रे।
प्रेमाने बघा रे। जगामाजी।।

आपले आपण। सारीच लेकरे।
देवाच्या विचारें। चालतोचि।।

नको जातपात। नको अंधभक्‍ती।
नको क्रूरशक्‍ती। आसमंती।।

ऐसे सांगोनिया। गेले संतजन।
त्याने माझे मन। शांत होते।।

पण देवा आता। असे कसे झाले।
येथे एकवटले। विकारी जन?।।

आता कसे करु?। येऊ तुझ्या द्‌वारी।
घराच्या बाहेरी। पडूं कैसे?।।

रस्तोरस्ती आता। पुसती सकलां।
कोण तू कोठला?। काय नाव?।।

रंग कैचां माझा। निळा की भगवा।
लाल वा हिरवा। काय सांगू?।।

जावे तेथे आहे। हिंसेचा व्यवहार।
व्यर्थ बडिवार। धुरिणांचा।।

डावे नि उजवे। काळे आणि गोरे।
आम्ही गोरेमोरे। भांडणात।।

डाव्यांचिया माथी। उजव्यांची काठी।
उजव्यांच्या पाठी। डावा बूट।।
विचारधारेची। किती ही भांडणे।
चौकामध्ये धुणे। सामाजिक।।

ऐसी कोणां होती। धर्म उठाठेव।
जातपात भेव। याच्या आधी।।

डाव्या वचनाचे। नव्हते गा भय।
उजवे अदय। कोठे होते?।।

आणि अचानक। काहीचिया बाही।
सारे लवलाही। बदलले?।।

काय म्हणू याला। अवकळा आली।
विद्यापीठे झाली। रणांगणे।।

विद्यार्थ्यांच्या हाती। काठ्या 
आणि सोटे।
पोलिसांचे ताठे। स्वस्थचित्त।।

जेथे बुद्धिवंत। डोके लढवीती।
तेथे आपबीती। आली आली।।

बुद्धिमंत येथे। सारे प्रज्ञावंत।
त्यांच्यापोटी जंत। का रे हरी?।।

याच्यासाठी का रे। सारा शिष्यगण।
बुद्धिजीवी जन। शिकतात?।।

सारस्वताचे गोड। लाविलेले झाड।
विखाराचा पाड। त्यासी आला।।

नको देवा आम्हां। ऐसी विद्यापीठे।
दगड आणि गोटे। जेथे येती।।

टळो इडापीडा। टळो गा दुरित।
जडो गा हरीत। जीव माझा।।

धाव घेई आता। माझ्या विठुराया।
नाहीतर वाया। सारे आहे।।

वामहस्त माझा। दक्षिणही माझा।
सारा देह माझा। नंदी म्हणे।।

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